युवा भारतीय महिलाओं की उभरती आकांक्षाएँ

पारंपरिक सामाजिक संरचनाओं और मानदंडों को चुनौती देती महिलाएं।

उच्च शिक्षा और कौशल विकास में लड़कियों की अब लड़कों के बराबर शैक्षिक उपलब्धि है, जिसमें 50% से अधिक युवा महिलाएँ

प्रियंका सौरभ

कक्षा 12 पूरी कर रही हैं और 26% कॉलेज की डिग्री प्राप्त कर रही हैं। युवा महिलाएँ विभिन्न कैरियर पथों और डिजिटल कौशल प्लेटफ़ॉर्म तक पहुँच से प्रभावित होकर पेशेवर महत्त्वाकांक्षाओं को तेज़ी से प्राथमिकता दे रही हैं। स्किल इंडिया मिशन और स्टेम फ़ॉर गर्ल्स इंडिया जैसे कार्यक्रमों ने तकनीकी क्षेत्रों में युवा महिलाओं की भागीदारी को बढ़ावा दिया है।

प्रियंका सौरभ

पिछले एक दशक में युवा भारतीय महिलाओं की आकांक्षाओं में एक परिवर्तनकारी बदलाव देखा गया है, जो उनकी बढ़ती स्वायत्तता, शिक्षा और कार्यबल में भागीदारी को दर्शाता है। यह विकास भारत के सामाजिक परिदृश्य को महत्त्वपूर्ण रूप से पुनर्परिभाषित कर रहा है।
उच्च शिक्षा और कौशल विकास में लड़कियों की अब लड़कों के बराबर शैक्षिक उपलब्धि है, जिसमें 50% से अधिक युवा महिलाएँ कक्षा 12 पूरी कर रही हैं और 26% कॉलेज की डिग्री प्राप्त कर रही हैं। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (2017-18) उच्च शिक्षा में महिलाओं के बढ़ते नामांकन पर प्रकाश डालता है, जिसमें महिला सकल नामांकन अनुपात 27.3% तक पहुँच गया है। युवा महिलाएँ विभिन्न कैरियर पथों और डिजिटल कौशल प्लेटफ़ॉर्म तक पहुँच से प्रभावित होकर पेशेवर महत्त्वाकांक्षाओं को तेज़ी से प्राथमिकता दे रही हैं। स्किल इंडिया मिशन और स्टेम फ़ॉर गर्ल्स इंडिया जैसे कार्यक्रमों ने तकनीकी क्षेत्रों में युवा महिलाओं की भागीदारी को बढ़ावा दिया है।
विवाह की औसत आयु 2005 में 18.3 वर्ष से बढ़कर 2021 में 22 वर्ष हो गई है, जिसमें अधिक युवा महिलाएँ अनुकूलता के आधार पर साथी चुनती हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार 52% महिलाओं ने साथी चयन में अपनी बात रखी, जो 2012 में 42% थी। कई युवा महिलाएँ आर्थिक स्वतंत्रता के लिए प्रयास कर रही हैं, विशेष रूप से उद्यमिता के माध्यम से, क्योंकि सरकार महिलाओं के नेतृत्व वाले स्टार्टअप के लिए समर्थन दे रही है। उदाहरण के लिए: नीति आयोग द्वारा महिला उद्यमिता मंच ने 10, 000 से अधिक महिला उद्यमियों के नेटवर्क को बढ़ावा दिया है। युवा महिलाएँ स्वयं सहायता समूहों और स्थानीय शासन में बढ़ती भागीदारी के साथ राजनीतिक रूप से अधिक सक्रिय हैं। ग्रामीण महिलाओं के बीच स्वयं सहायता समूह सदस्यता 2012 में 10% से बढ़कर 2022 में 18% हो गई। ये आकांक्षाएँ पारंपरिक सामाजिक संरचनाओं और मानदंडों को चुनौती दे रही हैं। जैसे-जैसे अधिक महिलाएँ करियर बना रही हैं, घरों में पारंपरिक लैंगिक अपेक्षाएँ बदल रही हैं। मनरेगा पुरुषों और महिलाओं के लिए समान वेतन प्रदान करता है, जो ग्रामीण घरेलू गतिशीलता को प्रभावित करता है। अधिक शिक्षा और आय के साथ, युवा महिलाओं का अब परिवार के वित्तीय और सामाजिक निर्णयों में अधिक प्रभाव है। स्वयं सहायता समूहों ने ग्रामीण महिलाओं को सामूहिक रूप से घरेलू वित्त का प्रबंधन करने के लिए सशक्त बनाया है। बाद में विवाह करने और साथी चुनने में सक्रिय भागीदारी की ओर बदलाव ने अरेंज मैरिज की पारंपरिक संरचना को चुनौती दी है। बाल विवाह में कमी और बाद में विवाह करने को प्राथमिकता देने की रिपोर्ट करता है। बढ़ती स्वतंत्रता ने सामाजिक प्रतिबंधों को चुनौती देते हुए शिक्षा या काम के लिए महिलाओं की अकेले यात्रा को सामान्य बना दिया है। 2012 में 42% की तुलना में अब 54% महिलाएँ बस या ट्रेन से अकेले यात्रा करने में सहज महसूस करती हैं। युवा महिलाएँ पेशेवर सेटिंग्स में लैंगिक समानता के बारे में तेज़ी से मुखर हो रही हैं, कानूनी और सामाजिक सुधारों को बढ़ावा दे रही हैं। पोष अधिनियम (कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की रोकथाम) , 2013 ने महिलाओं को कार्यस्थल के मुद्दों को प्रभावी ढंग से सम्बोधित करने के लिए सशक्त बनाया है। स्वयं सहायता समूह और ग्राम सभाओं में युवा महिलाएँ शासन में महिलाओं की भूमिका पर पारंपरिक विचारों को चुनौती दे रही हैं। केरल कुदुम्बश्री मिशन महिला-नेतृत्व वाले शासन को बढ़ावा देता है, जिसने राज्यों में इसी तरह के मॉडल को प्रेरित किया है।
भारतीय महिलाएँ ऊर्जा से लबरेज, दूरदर्शिता, जीवन्त उत्साह और प्रतिबद्धता के साथ सभी चुनौतियों का सामना करने में सक्षम हंै। भारत के प्रथम नोबेल पुरस्कार विजेता रवींद्रनाथ टैगोर के शब्दों में, हमारे लिए महिलाएँ न केवल घर की रोशनी हैं, बल्कि इस रौशनी की लौ भी हैं। अनादि काल से ही महिलाएँ मानवता की प्रेरणा का स्रोत रही हैं। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई से लेकर भारत की पहली महिला शिक्षिका सावित्रीबाई फुले तक, महिलाओं ने बड़े पैमाने पर समाज में बदलाव के बडे़ उदाहरण स्थापित किए हैं।
2030 तक पृथ्वी को मानवता के लिए स्वर्ग समान जगह बनाने के लिए भारत सतत विकास लक्ष्यों की ओर तेजी से बढ़ चला है। लैंगिक समानता और महिला सशक्तिकरण करना सतत विकास लक्ष्यों में एक प्रमुखता है। वर्तमान में प्रबंधन, पर्यावरण संरक्षण, समावेशी आर्थिक और सामाजिक विकास जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए विशेष ध्यान दिया गया है।
महिलाओं में जन्मजात नेतृत्व गुण समाज के लिए संपत्ति हैं। प्रसिद्ध अमेरिकी धार्मिक नेता ब्रिघम यंग ने ठीक ही कहा है कि जब आप एक आदमी को शिक्षित करते हैं, तो आप एक आदमी को शिक्षित करते हैं। जब आप एक महिला को शिक्षित करते हैं तो आप एक पीढ़ी को शिक्षित करते हैं।
स्वयं सहायता समूहों (एसएचजी) के माध्यम से महिलाएँ न केवल ख़ुद को सशक्त बना रही हैं बल्कि हमारी अर्थव्यवस्था की मजबुती में को भी योगदान दे रही है। सरकार के निरन्तर लगातार आर्थिक सहयोग से आत्मनिर्भर भारत के संकल्प में उनकी भागीदारी दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। पिछले 6-7 वर्षों में महिला स्वयं सहायता समूहों का अभियान और तेज हुआ है। आज देश भर में 70 लाख स्वयं सहायता समूह हैं। महिलाओं के पराक्रम को समझने की ज़रूरत है, जो हमें महिमा की अधिक ऊंचाइयों तक पहुँचाएगी। आइए हम उन्हें आगे बढ़ने और फलने-फूलने में मदद करें। महिलाओं के सर्वांगीण सशक्तिकरण के लिए ‘अमृत काल’ इन्हें समर्पित हो।
युवा भारतीय महिलाओं की उभरती आकांक्षाएँ भारत के सामाजिक ताने-बाने को उत्तरोत्तर रूप से परिभाषित कर रही हैं, एक ऐसे समाज को बढ़ावा दे रही हैं जहाँ लैंगिक समानता और महिलाओं की एजेंसी आदर्श बन गई है। सहायक नीतियों को सुनिश्चित करने से इस बदलाव में तेज़ी आ सकती है, जिससे समावेशी और सशक्त भविष्य का मार्ग प्रशस्त हो सकता है।

 

प्रियंका सौरभ
कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,

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